एक लड़का था राजू
बहुत खाता था काजू
दिन भर शैतानी और मनमानी
रोज़ कक्छा में बस डाँट खानी
था वो गरीब , माँ नौकरी करती थी
काजू की फैक्ट्री में काम करती थी
बाप था मिस्त्री घर था बनाता
बेटे को बहुत प्यार था करता
एक दिन माँ ने छुपा के रखे थे काजू
बेचने थे पडोसी को रुपये थे जुटाने
देखे जो काजू राजू ने तरकीब लगाई
मेज पर चढ़कर अपनी लम्बाई बढाई
नन्ही हथेलियों को उसने बरनी में डाला
भरी दोनों मुट्ठी पर उन्हें निकाल न पाया
बरनी का मुँह छोटा था और हाथ फंसे थे
दर्द से उसकी आँखों से आंसू निकले थे
रो - रो के माँ माँ चिल्ला रहा था
मेज़ से उतरने में डर रहा था
आवाज रोने की पड़ोसी सुन रहे थे
खुली थी खिड़की उसको समझा रहे थे
पहले छोड़ो काजू फिर एक हाथ निकालो
उसके बाद दूसरे हाथ को निकालो
राजू बोला फिर ना काजू मिलेगा
खाली हाथ बरनी से नहीं निकलेगा
हस रहे थे पडोसी पर वो रो रहा था
कैसे निकलेगा काजू सोच रहा था
थक गया रोते रोते और दर्द से कराहते
छोड़े काजू डिब्बे में हाथ बाहर निकाले
मारा हाथ बरनी को गुस्से से निचे गिराया
गिरते ही बरनी हुई चकनाचूर
फिर खाये राजू ने काजू भरपूर
था डर लग रहा माँ के आने से उसको
क्या कहूंगा अब मैं माँ को
तभी बजी घंटी मां ने आवाज लगाई
खोला दरवाजा माँ को गले से लग गया
अब ना खाऊंगा काजू बस ये दोहराया
माँ ने देखी रसोई सब समझ गयी
राजू की हरकत पे खामोश हो गयी
बोली काजू नहीं राजू तुम हो जरूरी
लगी होती चोट ज़ादा तो मैं भी रोती
अगर गिरते मेज़ से तो हड्डी टूटी होती
फिर काजू नहीं दवाई खाई होती
किया तुमने ये बहुत गलत काम है
ध्यान अपना रखना अहम बात है
पकड़े कान राजू ने कहा
अब ना खाऊंगा काजू
आख़िरी बार माँ
बस मुझे दो दे दो काजू ।।
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