मेरे अपने मुझको परखने लगे
खुद अपना परिचय देने लगे
सबित ना कर सके मुझको जब
मेरे चारित्र पे ऊँगली उठाने लगे
तमाशा देखना है आदत जिनकी
वो किरदार मुझे समझने लगे
जात पात और ऊंच नीच
मुझे धरम अधर्म सिखलाने लगे
कल्पनाएं उनकी अपनी है
पर दूसरों पे तोहमत लगाने लगे
मुखोटा उतरा नहीं जिनका कभी
वो दर्पण मुझे दिखलाने लगे
मतिमंद और आडम्बरी
किचड़े में जो धसे हुए
राम के लायक नहीं है सिय
मुझे पवित्र से पतित बनाने लगे
तिलक लागा और टिका कर
मनघडंत कथा सुनाने लगे
जिनके अपने करम है काले
वो वैदेही पे ऊँगली उठाने लगे
मर्यादा पुरुषोत्तम राम सही
सीता को धारती में समाना था
समाज की कुरीतियुओं से
कितना मुश्किल बच पाना था
आज भी दे रही अग्निपरीक्षा
कैसा ये दोष है
सतयुग हो चाहे कलयुग
औरत में ही खोट है
ये फैसला करने वाला
आखिर समाज कौन है....?