केतु : मुक्ति, प्यास, जिज्ञासा, सबकुछ और कुछनही ।।
आज़ादी का बादल हो या खयालो का धुआँ
मौजूदगी है हर जगह पर ध्यान है कहा ?
देने वाला (केतु ) गृह है जो , आध्यात्मिक गृह है वो
अपना ध्वजा फहराने वाला देश विदेश घूमनेवाला
आंखों से जो देख न पाए , लालच अभिमान कभी न भाए
सेवा भाव, ईश्वरीय भक्ति अध्यात्म जिसको अत्यंत भाए
जड़ से जो है जुड़ा हुआ, प्रकृति में समां हुआ
कुलदेवता और पित्तरो का आशीर्वाद लिया हुआ
जो अंतर्मन में झाँक न पाया, चैन उसको कहीं न आया
ज्ञात हुआ जब खुद का उसको तभी वो ज्ञानी कहलाया
घाट घाट का पानी पीला दे , पल में बुद्धि भ्रष्ट करादे
क्रोध इतना प्रचंड के उम्र भर का पछतावा करादे
देने पे आये तो सर्वस्व दे , नियत देख बरक्कत दे
सहज सरल मानव को - केतु मुक्ति का मार्ग दे
छल कपट और द्वेष से दूर ,निश्छल ,निष्पक्ष और प्रेम भरपूर
प्रभु जिसके चित में बसे केतु महराज उसपे कृपा करे
ध्यान मग्न जो अपने में रहे , प्रभु भक्ति में लीन रहे
बंधनों से मुक्त करादे जन्म मरण के फेर मिटा दे
ऐसे सर्वोत्तम केतु गृह को मेरा बारंबार नमन
कृतज्ञ, कृपालु, संत, भक्त ,कर्म प्रधान और सेवादार
कलयुग को भी सतयुग करते जो लेते है हरी का नाम
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